महिलाओं को कमतर आँकना एक रूढ़िवादी विचार

आजकल की महिलाएँ हर क्षेत्र में पुरुषों को चुनौती दे रही हैं। इसके बावजूद लोग महिलाओं के महत्व को स्वीकार करने में हिचकिचाते दिखाई-सुनाई पड़ रहे हैं। इस हिचक को दूर करने के लिए लोगों को अभी काफी लम्बा सफर तय करना है। यह देखकर गर्व भी होता है कि महिलाएँ घर की चारदिवारी को लाँघकर अपनी योग्यताएँ साबित कर रही हैं। क्योंकि महिलाएं साहस और धैर्य के साथ खुद को नई पहचान दिलाने के लिए तत्पर हैं। पुरुष भी महिलाओं के प्रति अपना नजरिया बदलकर उनके कार्यों की सराहना करते हुए उनको समान अवसर प्रदान कर रहे हैं। लेकिन यह पूरी तरह सच भी नहीं है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज की पुरुषवादी सोच आज भी महिलाओं को दबाने-सताने का प्रयास करती रहती है। हालाँकि अधिकांश लोग इस बात से सहमत भी होते हैं कि उनको आगे आकर अपने हक की बात करनी चाहिए। लेकिन इनमे से कुछ लोग महिलाओं को दबे-ढके रहने, पलटकर जवाब न देने, पुरुष से कमतर , अयोग्य और कम बौद्धिक क्षमता वाला समझते हैं।

सामान्यता जन्म के समय लड़का-लड़की एकसमान ही होते हैं। लेकिन बढ़ती उम्र के साथ उनके बीच सामाजिक अन्तर बढ़ जाता है। यह अन्तर कितना होगा इस बात पर निर्भर करता है कि उनकी परवरिश कैसे की गई है. इस परवरिश के पीछे मूल वजह लड़कियों को लड़कों के ऊपर तरजीह देना है। इसी कारण 21 वीं सदी में भी कुछ परिवारों में लड़का और लड़की को बराबर शिक्षा नहीं मिल पाती है। इसके पीछे एक धारणा यह भी है कि लड़का वंश वृद्धि का कारक है तो वहीं लड़की पराया धन होती है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पढ़ी-लिखी लड़की दो घरों को रोशन करती है। और यह रोशनी दो घरों तक ही सीमित न होकर मोहल्ला, शहर, प्रदेश और देश को भी शिक्षित करती है। हालाँकि कुछ शहरों, इलाकों, गाँवों और परिवारों को छोड़ दिया जाए तो महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा सपने जैसी ही है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि आए दिन बलात्कार, यौन शोषण, छेड़छाड़ और हत्या जैसी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। इन दुर्घटनाओं से डरकर माता-पिता इस डर से उन्हें घर से दूर नहीं भेजते हैं। कुछ लोग लोकलज्जा और कुछ गलत न हो जाए इसके डर से बहुत कम उम्र में ही लड़कियों की शादी करा देते हैं।

वर्तमान समय में महिलाओं को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ कानून, सम्पत्ति का अधिकार, समान वेतन का अधिकार जैसे अनेकों कानून बनाये गये हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश कानून, मात्र किताबों के पन्नों को ही सँवार रहे हैं। देश की अधिकांश संस्थाएँ और संगठन; महिलाओं के प्रति हो रहे अन्याय, हिंसा और बलात्कार जैसी घटनाओं को रोक नहीं पा रहे हैं। क्योंकि सही मामलों में यह कार्य केवल संस्थाओं और संगठनों का नहीं है, बल्कि हर व्यक्ति का है। देश की आधी आबादी कही जाने वाली, ब्रह्माण्ड की जननी का अबला से सबला बनने का समय आ गया है। वह भी स्वतंत्रता की पक्षधर है, उन रूढ़िवादी सोच और कुरीतियों से, जो महिलाओं को समाज में निचले स्तर पर ले जाने और गुलाम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती है। आजकल कुछ लोग घरेलू कामों में महिलाओं का सहयोग करते दिखाई-सुनाई पड़ते हैं। हालाँकि इनमे से कुछ लोग एहसान भी जताते हुए दिखाई पड़ते हैं। लेकिन इस बात को भी मानना होगा कि महिलाओं के प्रति नजरिया बदलने में इनकी भी भूमिका होती है. लेकिन सवाल आज भी किन्तु, परंतु में उलझा पड़ा है। इसी से एक सवाल ये भी कि इस किंतु, परंतु का जवाब महिला-पुरुष दोनों को मिलकर खोजना चाहिए। यह केवल महिलाओं पर ही नहीं छोड़ देना चाहिए। जितना जरूरी लड़का है, उतनी ही जरूरी लड़की भी है। जब लोग पूरी तरह से यह बात समझ जाएँगे, तो परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाएँगी। महिला के बिना परिवार, समाज और दुनिया की कल्पना करना अधूरा है। पुरुषों का महिलाओं को अपने से कमतर आँकना, एक रूढ़िवादी विचार है। लोगों को इस रूढ़िवादी सोच से ऊपर उठकर एक सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। हालाँकि ऐसी पुरानी रूढ़ि आदतें मुश्किल से जाती हैं, लेकिन एक दिन जरूर जायेंगी। हम सबको ऐसी कुरीतियों को अपने से दूर रखना चाहिए।

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Abhayjeet Yadav

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प्रशिक्षु पत्रकार, भारतीय जन संचार संस्थान